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त्वं सु॒तस्य॑ पी॒तये॑ स॒द्यो वृ॒द्धो अ॑जायथाः। इन्द्र॒ ज्यैष्ठ्या॑य सुक्रतो॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tvaṁ sutasya pītaye sadyo vṛddho ajāyathāḥ | indra jyaiṣṭhyāya sukrato ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्वम्। सु॒तस्य॑। पी॒तये॑। स॒द्यः। वृ॒द्धः। अ॒जा॒य॒थाः॒। इन्द्र॑। ज्यैष्ठ्या॑य। सु॒क्र॒तो॒ इति॑ सुऽक्रतो॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:5» मन्त्र:6 | अष्टक:1» अध्याय:1» वर्ग:10» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:2» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

ईश्वर ने, जीव जिस करके पूर्वोक्त उपयोग के ग्रहण करने को समर्थ होते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है-

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) विद्यादिपरमैश्वर्ययुक्त (सुक्रतो) श्रेष्ठ कर्म करने और उत्तम बुद्धिवाले विद्वान् मनुष्य ! (त्वम्) तू (सद्यः) शीघ्र (सुतस्य) संसारी पदार्थों के रस के (पीतये) पान वा ग्रहण और (ज्यैष्ठ्याय) अत्युत्तम कर्मों के अनुष्ठान करने के लिये (वृद्धः) विद्या आदि शुभ गुणों के ज्ञान के ग्रहण और सब के उपकार करने में श्रेष्ठ (अजायथाः) हो ॥६॥
भावार्थभाषाः - ईश्वर जीव के लिये उपदेश करता है कि-हे मनुष्य ! तू जबतक विद्या में वृद्ध होकर अच्छी प्रकार परोपकार न करेगा, तब तक तुझको मनुष्यपन और सर्वोत्तम सुख की प्राप्ति कभी न होगी, इससे तू परोपकार करनेवाला सदा हो ॥६॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

किं कृत्वा जीवः पूर्वोक्तोपयोगग्रहणे समर्थो भवतीत्युपदिश्यते।

अन्वय:

हे इन्द्र सुक्रतो विद्वन् मनुष्य ! त्वं सद्यः सुतस्य पीतये ज्यैष्ठ्याय वृद्धो अजायथाः ॥६॥

पदार्थान्वयभाषाः - (त्वम्) जीवः (सुतस्य) उत्पन्नस्यास्य जगत्पदार्थसमूहस्य सकाशाद्रसस्य (पीतये) पानाय ग्रहणाय वा (सद्यः) शीघ्रम् (वृद्धः) ज्ञानादिसर्वगुणग्रहणेन सर्वोपकारकरणे च श्रेष्ठः (अजायथाः) प्रादुर्भूतो भव (इन्द्र) विद्यादिपरमैश्वर्य्ययुक्त विद्वन् ! इन्द्र इति पदनामसु पठितम्। (निघं०५.४) अनेन गन्ता प्रापको विद्वान् जीवो गृह्यते। (ज्यैष्ठ्याय) अत्युत्तमकर्मणामनुष्ठानाय (सुक्रतो) श्रेष्ठकर्मबुद्धियुक्त मनुष्य ! ॥६॥
भावार्थभाषाः - जीवायेश्वरोपदिशति-हे मनुष्य ! यावत्त्वं न विद्यावृद्धो भूत्वा सम्यक् पुरुषार्थं परोपकारं च करोषि, नैव तावन्मनुष्यभावं सर्वोत्तमसुखं च प्राप्स्यसि, तस्मात्त्वं धार्मिको भूत्वा पुरुषार्थी भव ॥६॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - ईश्वर जीवांना उपदेश करतो की - हे माणसा! तू जोपर्यंत विद्येने पूर्ण विकसित होऊन चांगल्या प्रकारे परोपकार करणार नाहीस तोपर्यंत तुला माणुसकी व सर्वोत्तम सुखाची प्राप्ती कधी होणार नाही. त्यासाठी धार्मिक बनून परोपकारी हो. ॥ ६ ॥